Wednesday 23 December 2015

बहुत छोटी हूँ में

बहुत छोटी हूँ में
में बात अपनी उम्र की नहीं कर रही हूँ
ना ही कर रही हूँ इस कलम की
में बात कर रही हूँ इस लिखाई की
में बात नहीं कर रही  लिखावट की
ना ही बात कर रही हूँ अपने कद की
में तो बात कर रही हूँ इस कविता की
जिसे बुनते ही चली जा रही हूँ में
में बात नहीं कर रही हूँ कला की
वो तो सबसे सर्वश्रेष्ठ है।
न ही बात कर रही हूँ कलाकार की
में बात नहीं कर रही हूँ एक कलाकार को दूसरे कलाकार से श्रेष्ठ कहने की
में बात कर रही हूँ शब्द कलाकार की
जिससे मुझे पुकारा जाए
बहुत छोटी हूँ में
हाँ यही तो बात कर रही हूँ में।

Sunday 1 November 2015

सवाल

क्यों? क्यों? इंतज़ार ही बनाया कलाकार ने
ये तो सबको करना ही पड़ता है।
किसी के लिए अच्छा तो किसी के लिए बुरा
साबित हुआ है इंतज़ार इसीलिए??
पर कला ही तो ऐसी जगह है जहा पर हर मनमानी मंजूर है
तो क्यों न बनाई बेरूखी?
जो बेरुखी ही रहेगी सबके लिए या क्यों न बनाया
प्रेमिका या माँ जैसा अनंत प्रेम?

Thursday 29 October 2015

राज़

एक दिन एक कलम मिली 
और ले आई तरीका मुश्किलो से भागने का 
बिन घर छोड़े। 

लावारिस

जितना पानी बारिश में मेरे घर पर पड़ा वो मेरा हुआ। 
जितना तुम्हारे घर पड़ा वो तुम्हारा। 
पर बेचारा सड़क पर पड़ा पानी लावारिस है 
कोई भी बच्चा आता है 
और मनमानी कर अपनी कश्ती चलाता है। 

एक शहर, जो गुम गया

एक शहर था। 
था भी के पता नहीं। 
अब तो आसमान से मरी हुई तितलिया गिरती हुई देखती हूँ में। 
 बादलों का रंग सुख कर लाल हो चला है। 
पेड़ सारे ज़मीन पर पसरे पड़े है। 
कौन उठाये अब ?
छोड़ो
कुछ एक ने तो कोशिश भी की 
रंगो की बाल्टियाँ भर कर उस शहर को दे दी। 
पर कितना रंग पाते अपने आसमान को
तीरगी से भरे हुए कुओं जैसे घर थे सारे 
पिछली बार फूल खिलते हुए देखा था मैंने 
अब सिर्फ जुगनू है बिन रौशनी के उड़ रहे है हर तरफ। 

Tuesday 27 October 2015

बह गया घरोंदा

मुझे घर बनाने की बहुत जल्दी थी
और राजस्थान में सिर्फ मिटटी थी
उससे बाहर देख आना था गयी तो
वहाँ भी देखा सब माटी के घर बना रहे थे
में भी बनाने में जुट गयी
पीछे देखा ही नहीं कब तुम्हारे इरादे
लेहरो में तबदील हो गए। 

Sunday 25 October 2015

हाँ तुम

हर रात अकेले तो नहीं आती ?
तुम अकेले तो नहीं सोते ?
नहीं अकेले नहीं
कुछ तुम्हारी खामोशिया तो कुछ आहे ताकती है तुम्हे
 तुम्हारे सिरहाने पर पड़ी हुई। 

Saturday 24 October 2015

एक खत मेरे बाद मेरी बिटिया को

डरना मत तुम
रातो के जाले हटाना
कुछ शैतानी तारे नोचने को आएंगे
पर रौशनी की तपिश सफ़ेद ही देखना लाल नहीं
डरना मत तुम
चाँद तुम्हारा नहीं
ये रात तुम्हारी नहीं
घबराना मत तुम सुबह तुम्हारी होगी
तो क्या हुआ जो आ जाती है रात हर रोज़
इसी आसमान पर रात है इसी पर सवेरा
तीन पहर तक संभाल लेना अकेले
फिर उसके बाद कभी कभी मैंने चिड़ियों को चहचहाते सुना है
और धीरे धीरे सूरज की रौशनी डूबा देगी
आसमान को नारंगी रंग से
मेरी बहादुर बिटिया
डरना मत तुम। 

Tuesday 20 October 2015

रात, दिन और रंगना

रंग बदलती है हर चीज़।
दो रंग 
एक उसका और एक रात का काला 
रात आती है, काले रंग की भरी बाल्टी लिए
सब पर उड़ेल जाने को 
फिर दिन आता है
रौशनी की बारिश से काली ख़ाक हटाने को अपने रंग में ले आने को
हर रोज़ सुबह भरता है सूरज
पेड़ो में हरा
पानी में नीला
आसमान नारंगी सा रंग बदलता
और हर एक की रगों में लाल।
कैसा हो की सूरज ऊब जाये इन रंगो से
एक सुबह हो और
पेड़ नीले
आसमान हरा
पानी गुलाबी
और हर एक की रगो में दौड़े सच्चाई का सफ़ेद पानी। 

Thursday 15 October 2015

पुराना ज़माना

वो कहानी याद है तुम्हे ?
हाँ वही
वो तुमने पूरी नहीं सुनाई
ऐसा भी कोई ज़माना होगा जब
सब्जिया भी मिलावटी मिलेंगी?
पहले से ही कह देती हूँ ,
कोई चीज़ फ्री में मत देना किसी को
वरना लोग उसे बेज़्ज़ती समझेंगे उनकी।
और तुम लूट भी जाओगे तो शर्मिन्दिगी के साथ
समय तो आता रहेगा जाता रहेगा।
जमाना भी बदलेगा।
जो कमीज़ सी थी तुम्हारे लिए
तुम कह रहे थे वो तंग हो गयी है आज कल?
सही कहा जमाना जल्दी गुज़र रहा है।
गाँव में कच्ची सड़क के इस पार घर है,
और उस पार सबके खेत।
मिर्चियाँ और कोल्हा (कद्दू ) ही उगता आया है खेत में।
चाहे गाँव में ब्याह शादी हो, या मरन-करन कोल्हा ही बनता है।
बाकी दिन तो छाछ और मिर्च रोटी से निकल जाते है।
पर, याद रहे वहां ऐसा ना होगा।
अरे बाबा, सच मानो खाना खाने का तो समय ही नहीं होगा लोगो के पास
और भूक से मिट जाने वाली चीज़ो को लोग बिमारी समझ
साइकियाट्रिक के पास जाया करेंगे और लाखो उड़ाया करेंगे।
उन्हें नहीं पता होगा की हरी सब्जिया और फल, मंडी से ले आने पर ज्यादा असर होगा।
पर तुम बताना मत उन्हें ये बात, यकीन मानो नहीं मानेंगे वो।
और माँ तुम भी सुनो ,
जब खीर बनाओगी तो सर पर हाथ फिराते हुए ये मत कह देना
की खा लो ना तुम्हारे लिए पुरे दस बादाम डाले है उस वक़्त लोग तुम्हे चीप भी समझ सकते है
उन्हें नहीं पता होगा ये बादाम की गिनतियों वाला प्यार।
बताया था ना लूट भी जाओगे और वो भी शर्मिन्दिगी के साथ। 

Monday 5 October 2015

ना शीशा ना पत्थर

शीशा मत बन जाना तुम 
बात कोई करेगा तुम से और टकरा कर 
किसी और तक पोहच जाएँगी 
पर, पत्थर भी ना बन जाना 
देखकर लोग नहीं चलेंगे 
और गालिया भी तुम्हे पड़ेंगी। 

चुप्पी

छोटा था, नादान था वो
लिया चाँद को कटोरा समझ के आसमान से छीन
उसमे भरा पानी
और ले गया तारो को नहलाने
चाँदनी ठंडी पड़ी थी
और जल रही थी रात
मन किया की उसे बतादु ये वास्तविकता नहीं है
तीरगी का समय है तेरा। 

फर्क क्या?

सीमा के उस पार
लोग है हमारे जैसे
शक्ल है हमारे जैसी
खून है हमारे जैसा
तो फर्क क्या है?
जब उनके सर कटते है तो टोपिया गिरती है
जब हमारे कटते है तो पगड़िया ????

Saturday 3 October 2015

हम

यूँ नादानी में खुरेच कर
हथेली अपनी, लकीर ना निकालो
जो तेरा मेरा साथ लिखा हो
फ़ासले ना बढ़ जाये। 

तुमसे बहुत समय बाद मिलना

बहुत बीमार थी कलम मेरी
शायद तुमसे मिलना न हो पाया था इतने दिनों से
तुम मिले तो अच्छा लगा ,
चलो अब देर न करो
जल्दी से अपनी जेब में हाथ डालो
और मुट्ठी भर शब्द निकालो। 

देखा नहीं तुमने?

छलकते सावन को,
जाले पड़ती रातो को,
सूरज के आँचल को,
रेत के मातम को। 

पिंजरा

पिंजरे में फाँस ली गयी 
आस ली गयी 
के तुम आओगे और मुझे छुड़ा ले जाओगे 
आओगे न ??
दूर कहीं ले जाना मुझको 
जहाँ ना पिंजरे होंगे ,
ना ललचाती झूटी रोटियाँ 
बस तुम होंगे। 
बस में होंगी। 
और हम हमसे छोटे पिंजरे बनाया करेंगे। 

Tuesday 29 September 2015

कल्पनायें

कल्पनायें सोची नहीं जाती वे तो बस की जाती है।
यकीन माँ मानो मछलियों को उड़ते देखा
पक्षियों को गोते खाते।
मन किया तो सावन में सुखा कर दू
मन किया तो दिल्ली में पानी भर दू।
जानते है ना ये सब कहाँ किया ??
हाँ वही कल्पनाओं में
क्यूंकि वे सोची नहीं जाती वे तो बस की जाती है। 

तुम्हारी नींद

तुम्हे नींद नहीं आती ?
बोलो क्या करू ?
लिफ़ाफ़े भर अपने बदन की खूशबू भेजा करू ?

लो अब

मेरी कविताएं बहुत उदास थी,
कारन पूछा तो बोली
सांस नहीं आती अब इन सुराही जैसे लिपटे कागजो में,
फिर ढूंढा तो कुछ गायब थी।
सोचा, अब क्या किया जाये
देखा कुछ सिमटी भी पड़ी थी अँधेरे में
सोर समेटा
और नहला दिया सबको
बहार तार पर सुखाई है झाड़ कर
ताकि कुछ बूंदे स्याही की तुम तक भी पोहचे।  

जुड़वाँ

वो चार-चार आँखे साथ पिरो रहा था,
कहता था साथ-साथ जाएँगी ये नीचे। 

Monday 28 September 2015

ज़िंदा

कुछ लोग ज़िंदा हो कर भी मर गए
ना कानोकान खबर हुई किसी को
ना जलाना या दफ़नाना पड़ा। 
बस मर गए
साँस तो चल चल रही है
दिल भी धड़क रहा है
पर अंदर से सिसकियाँ भी नहीं चलती। 
बस मर गए
ना जिस्म ठंडा पड़ा 
ना आह की आवाज़ आई 
ना कोई लपटे उठी ना कब्र खुदी। 
बस मर गए
ज़िंदा होकर भी। 

ज़मीं

ऐसी मीनारे काम की नही जहा से हमें ज़मी ना दिखाई दे।

कुदरत

कुदरत कभी फर्क नहीं करती 
अगर सर्द हवाओ में ठिठुरती है झुग्गियां 
तो सुहानी धुप का पोहचना नहीं हो पाता महलो तक। 
अगर सारे पत्तो को सूख कर झड़ना होता है 
तो एक साथ कई कोपलों का जन्म भी होता है। 

पंछी

एक छोटी सी पंछी हूँ में
ढूंढ रही हूँ पंख मेरे में 
मिलते ही उन्हें लगा में 
उड़ जाउंगी आसमान में 
एक डाल से दूजी डाली 
उड़ती फिरती घूमूंगी में 
नाप लुंगी फिर सारा जग 
दो छोटे पंखो को लगा में 
हाँ छोटी सी पंछी हूँ में 
ढूंढ रही हूँ पंख मेरे में। 

मेरे बचपन से एक और 

शरारती कल्पना

हाथी बैठ में होली खेलु
सब भीगे में ऊँचे से देखू  
हाथ न आने पाउ में 
सब को यूँ रंग जाऊ में। 

हाथी बैठ में होली खेलु 
पिचकारी हाथी सर मेलु। 
सबके रंग हाथी तक पोहचे 
कैसे पोहचे सब ये सोचें। 

हाथी बैठ में होली खेलु 
रंगीन गुबारे हाथी पग पेलू। 
पूछ हिलाये हाथी इतराये 
मित्र सरे रंगने से कतराएं। 

हाथी बैठ में होली खेलु 
रंग सरे मर्ज़ी के लेलु 
हाथी बैठ में होली खेलु। 

दीवाना

हाँ दीवाना
हूँ दीवाना
दीवाना ही कहले ये दुनिया मुझको,
पर रहने दे मुझे मेरे अंदर। 

केसरिया

बेरंगा सा कागज़ देखा
देखी बेरंगी दुनिया।
और सफ़ेद कपड़ो में लिपटी छोटी सी वो विधवा
बेरंगा सावन देखा
देखा बिरंगा मोती
देखा बिरंगे दिल में इश्क का रंग भरा जाना
और
और देखा केसरिया रंग में रंग जाना भी। 

में

मेरी गोद में खेले धरती आकाश
सूरज से पल रही हूँ में
हूँ चंचल करती सननसनन
में उड़ चली संग ले ढेर पवन
में जब पिली चुनार ओढू तो दिन हो जाये
जब केश संवारु तो काली रात
में माथे पे चाँद लगाये
बालो में तारे सजाये
मुठ्ठी में भर लू जुगनू सारे
रात में छोड़ू गगन में तारे
प्रतिदिन नए रंग भर आऊ
में झरनो के संग झर्र जाऊ
में चिड़ियों के संग चेहकाऊँ
में
में प्रकृति हूँ। 

स्वदेस

जब कोई आखिरी बार मुस्कुराए
तो समझिए वो उसका आखिरी दिन है उस शहर में
पर, कैसे पता चले की वो आखिरी मुस्कान है।
जब कलम रुका करे और मुस्कान के बाद भी मन मुरझाये
आपकी नींद खुले हड़बड़ी में
आपको आपका देस बुलाये। 

है

भूका हुआ पैदा जो बच्चा
वो समझे भूख को ही खाना
पैदा हुआ जो पिंजरे में पक्षी
उड़ने को समझे जकड़ा जाना
पैदा हुआ अनपढ़ो में समझे
किताब को चूल्हा जलाना
बचपन में ही विधवा हुई जो
क्या तो समझे रंगो रंग जाना।

कारवां

जब मेरी सारी मेहनत खो गयी थी कहीं
यकीन मानिये बहुत रोई थी यहीं
बार बार खाली बक्से को खोल कर देखा जाता था।
और आंसुओ की धारा बहा कर ये सोचा जाता था।
काश लापहरवाही ना की होती।
ये सुन्दर झोली खाली ना होती।
फिर सोचा की खाली झोली पर रोना तो कभी खत्म ना होगा
पर भरे पर मुस्कुराना जरूर होगा।
मैंने ही तो भरा था इसे तब
तो फिर आ सकता है ना नया अब
उठाये आंसुओ से मुस्कान
शुरू हुआ मेरा काम
पिछली बार की तो सब मिट गयी थी
आज बक्सा खोला तो पाया नयी कवितायेँ फिर भर गयी थी।

बेलों की कथा

कभी बेलो को ध्यान से देखा है आपने
बहुत सुलझ कर उलझी  हुई  होती है वे
दायें बाएं से बल खाते हुए
निचे से ऊपर चढ़ जाती है इतराते हुए।
ऐसा लगता है जैसे पूरा परिवार चिराग जैसे चमकते फूल लिए
किसी अपने खोये को ढून्ढ रहे है हर एक दिशा में
सहारा मिलते ही ऊपर चढ़ जाए पर रुके नहीं
ना मिले सहारा तो ज़मीं पर पसर जाए नागिन सी बल खाए पर रुके नहीं
आपने शायद ठीक से सुना नहीं
वे सीखा रही है आपको बढ़ते जाना
बिना जरूरतों के वो भी सबको साथ लेकर।

वेश्या

कंधो पर हाथ फिराया
कंधो को जकड़ा
पटका, और फिर खरोचा गया
कंधे सहते ही आये बचपन से उसके
दो चोटियों के भार से बस्ता और फिर
बाऊजी का कंधे से पकड़ कर उठाना और
अपने कंधे पर बैठा कर घूमना।
कंधे ने ही तो सहा पानी की मटकियों का भार
और लायी इमली की सारी टूटी झाड़े
कंधे ने ही तो सहा छोटी फ्रॉक से ब्लाउज तक का सफर
और जब उठा ले आया कोई दरिंदा कंधो से मरोड़ कर
वो सहती रही , कंधे सहते रहे।
फिर अपनी बाँहो में समेटा कंधो को
कुछ आंसू झटके कंधे पर
और फिर
कुछ कंधे आये
कंधो पर हाथ फिराया
कंधो को जकड़ा
पटका, और फिर खरोचा गया। 

तम्मन्नाओ के ज़ख्मो का हिसाब

हिसाब लगाना मुमकिन नहीं है
अपनी तम्मन्नाओ के खुदरे हर घावों का
और मुझे नहीं लगता की कोई लगाना भी चाहेगा
दिल में तमन्नाएँ होती है।
जो धीरे धीरे बह जाती है आँखों से आंसुओ के साथ
ठीक वैसे ही जैसे झरने को बहना होता आया है।
चाहे कुछ भी हो जाये वो बहता ही रहेगा उसका जल समाप्त नहीं होगा।
इन तम्मन्नाओ को समेटा कभी पल्लू में,
तो कभी बुर्शट की आस्तीनों में।
आंसू उड़ जाते है, पर तमन्नाएँ वही रह जाती है।
उन्ही पल्लूओ में उन्ही आस्तीनों में सुख कर जम जाती है।
बिन बताएं, और ताखती रहती है मुह को खामोशियाँ।

मजदूर

रक़्स करती हुई जब बड़ी होती है सुराही 
तब जा कर हो पाती है कुम्हार की कमाई। 
लोहे को दे पाता है शकल जब लुहार 
तब जा कर सुनी जाती है उसकी मनुहार। 
खुद कट चमड़े को जब करनी पड़ती है पेरो की रखवाल 
तब जा कर अपने बच्चो को मोची पाता है पाल। 
घर घर संदेसा पहुँचा के जब पोस्टमेन घर आता है, 
तब जा के अपने घर का राशन भर पाता है। 
जब ५ पैसा एक लहंगे पर वो चमकता गोटा लग पड़ता है, 
तब जा के उसके घर का चूल्हा आग पकड़ता है। 
गर्म भट्टी में जल जब काम कर पाते है मजदूर, 
तब जा कर खुरदरे हाथो से अपना जहाँ बसा पाते है मजदूर। 

भीगी हिंदी

जब दिल में बहुत कुछ संभाल कर रख लेते है।
तो डर लगता है उससे कुछ हो ना जाये।
दिल जैसे सबसे सुन्दर कमरे में
जहाँ सब कुछ संभाल कर रख लिया जाता है
यादें , बातें , कारन, खटास और मीठी सी धड़कने तेज़ करने वाली
बातें भी फिर बस कभी बारिश न जाये
ये आंसू ना बह जाए
ऐसा हुआ तो कमरे में पानी भर जाएगा।
सब भीग जायेगा बहार आने से पहले
ठीक उसी तरह जैसे मुंबई की बारिश में
भरे पानी में भीग जाती होंगी वो कोर्ट कचहरी की फाइले
जो अब तक पोहची भी नहीं है कोर्ट तक
और मिट, धुल से जायेंगे सारे अक्षर उसी तरह
जैसे हिंदी धुल रही है अंग्रेज़ी के जमाने में
और उस भीड़ में कोई न मिलेगा ये कहने वाला
की हाँ पहचानो इससे ये हिंदी है।

मेरी कलम

हाँ देखो ना मेरी कलम भी चलती है।
किसी को नहीं पता 
अरे  बाबा चलती है,
रूकती है,
मेरी सुनती है। 
कई बार रुक-रुक कर सोचती भी है। 
न जाने क्या काटा-पिटी करती है, फिर चलती है। 
बीच में कोई एरो बनाती है कुछ जोड़ देती है, 
फिर जब आखिरी लाइन आती है,
तो सोचती है ओह्फू ये क्या 
कुछ समझमे आने लगा था और कागज़ भर गया। 
ठीक तो निकालो अब नया। 
फिर चलती है, 
रूकती है,
सुनती है, सोचती है 
और फिर चलती है।
मेरी प्यारी कलम। 

फर्क लिखाई का

फर्क होता है लिखाई में
हर फूल मंदिर नहीं चढ़ता 
कुछ टूट कर बिखरते है।
तो कुछ अपनों को दिए जाते है। 
कुछ वीरो पर चढ़ जाते है,
तो कुछ सुन्दर सेज सजाते है।  
तो कुछ माला में पिरोकर मंदिर चढ़ाये जाते है। 
और हाँ कुछ मेरे जैसे भी होते है। 
जो माला तक तो पोहच जाते है।
पर इंतज़ार करते है की कोई आये और ले जाये मंदिर तक 
चढ़ाये गए तो सही नहीं तो वही पर मुरझाना पड़ता है। 
फिर कोई स्कोप नहीं बचता वापस आने का 
कह कर समझाना पड़ता है खुद को 
किसी कोने में आखिरी खूशबू देती हुई मालाओ क साथ 
आगे बढ़ो आगे बहुत फूल मालाएं है कतार में। 

तहखाना

बहत समय बाद जब आज कलम उठाई तो ऐसा लगा की जैसे पुराने तहखाने के दरवाज़े से आने वाली चुर्र की आवाज़ आएगी। आवाज़ तो नहीं आई पर हाँ पुराने पड़े सामान की तरहां थोड़ी उथल पुथल मचानी पड़ी दिमाग में उन शब्दों को ढूंढने में जिन्हे कई समय से काम में नहीं लिया था।
आज फिर पुराने समय की तरह एक नयी माला गूथने की चाह है।
नए रंग रंगीले फूलो जैसे शब्दों को गूथ कर नयी माला बनेगी और फिर समेट कर रख दी जाएगी उसी तहखाने में हमेशा की तरह। 
फिर एक लम्बा समय होगा और फिर कलम उठेगी पुराने दरवाज़े की तरह आती चुर्र की आवाज़ के इंतज़ार में जो नहीं आएगी क्यूंकि कलम पुरानी हो सकती है पर मेरी स्याही गीली रहेगी वो सूखेगी नहीं कभी नहीं। 
उसका काम ही है शब्दों को रोज़ अपने नीले, लाल और हरे, काले रंग से चमक देना और उन्हें नया रखना। 
तो माला का क्या? हाँ माला अरे वो भी नयी मुरझायेगी चिंता न कीजिये उसे मालूम है उसे नहीं मुरझना 
नहीं तब तक तो नहीं जब तक उसे कोई आकर ले नहीं जाता उसकी सही जगह उसी तहखाने से। 
उसी इंतज़ार में सिमटी माला तहखाने मे। 

वो बचपन की यादों का तहखाना

एक छोटा सा तहखाना लिए चलती हूँ में अपने अंदर
लिए समेटे सारी दुनिया,
सहेली मुनिया,
माँ की चूड़ियाँ,
वो बचपन की गुड़िया
पूरा बचपन याद है मुझको
थोड़ी धुल जमी है किनारो पर बस,
झाड़ धुल में पढ़ना चाहु
बहना चाहु उस बचपन में फिर से,
महंगे परफ्यूम नहीं वो पहली किताब की खूशबू,
बारिश में मेरी छोटी नईया,
बारिश क बाद वो मिटटी महकना,
उस मुनिया के गुड्डे से मेरी गुड़िया की शादी,
और चार दिन पहले से सारी उसकी तैय्यारी।
छोटे से लीलाट पे अपने माँ की बिंदिया को लगाना,
ऊँची एड़ी कर लम्बा हो जाना,
दुपट्टा डाल सर पे अपनी छोटी माँ बन जाना,
जब माँ पकडे मुझको चुपके से तो मेरा शर्माना।
हाँ वो बचपन की यादों का तहखाना
एक छोटा सा तहखाना लिए चलती हूँ में अपने अंदर। 

चुपके से

अपनी रगो में महसूस किया है कभी
लहू का गुज़रते रहना
चुपके से।
रोज़ के शोर शराबे में कभी कानो तक पोह्ची है
दिल की धड़कने
चुपके से।
कभी नज़र डाली है करोड़ो की तादात में
तारो का आसमान से रोज़ गुज़र जाना
चुपके से।
जैसे गुज़र जाते हो यादों के कारवाह
चुपके से।
हर कुछ महीनो में मौसम का बदलना होता आया है
चुपके से।
चिड़ियों का सोना और जाने कब उठ कर चहचहाना
चुपके से।
नदी किनारे झुकी हुई झड़िया जिन्हे
छूता हुआ  गुज़र रहा है पानी हर रोज़
चुपके से।
गंगा और गंगा जैसी हज़ारो नदिया पवित्रता के साथ
बह रही है हर देस से गुज़र के बिना सीमाओ का लेहाज़ा करते हुए
खल खल में छुपी ख़ामोशी क साथ
चुपके से।

Friday 25 September 2015

एक दिन बिन लोकल

लोकल से मतलब यंहा ट्रैन है।
मुंबई को लोकल की देन एक वरदान है। 
एक जगहे से दूसरी जगहे जाना हो,
तो अगर इसमें कामियाबी चाहिए तो बहुत जरुरी है लोकल का सहारा। 
यहाँ रोज़ लाखो लोग लोकल के यात्री होते है।
न जाने कितनी बार एक गयी तो दूसरी आ जाती है ठीक समय पर। 
लोकल का कुछ क्षणों के लिए रुकना और
हजारो की तादात का एक साथ चढ़ना उतरना आम सी बात है। 
में सोचती हूँ की कैसा हो अगर न हो लोकल इस शहर में?
एक दिन भी बंद हो जाये तो थम जाता है ये शहर
मानो ज़िन्दगी ले चलती है ये ट्रेने
जब बारिश का ज्यादा आना हो जाता है तो ट्रेनों को थमना पड़ता है।
उसी के साथ थम जाता है हर एक आम इंसान 
नही सोचा जाता ये शहर बिन लोकल एक दिन भी।  

रायमिंग

एक कवियित्री मिली या यूँ कहिये एक लड़की मिली
जिसे खुद को कवियत्री समझना पसंद था।
बेशक उसकी अंग्रेजी बेहतरीन थी
और जो काम हम हिंदी में करते है
वही वे अंग्रेजी में बाखूबी तरीके से करना जानती थी 
शायद अंग्रेजी में तो खूब लिखा था पर,
पूछ बैठी में उन से क्या आप हिंदी भी लिखती है?
और वो बोली की हाँ लिख लेती हूँ
बस परेशानी ये है हिंदी की कि उसमे
रायमिंग नही हो पाती वह बड़ा मुश्किल काम है हिंदी का 
वरना तो में लिख सकती हूँ
में कुछ न कह सकी और सोचती हूँ,
की हिंदी क्या सोचती होगी फिलहाल।

जब खो गया एक पन्ना

जब कविताओ का एक पन्ना खो गया
तो याद आया की कितना मुश्किल है
अपनी ही प्रतिमाओ को याद रखना
वे तो बस निकल आती है। 
उतारा पन्ने पर तो सही,
नही तो फिर कभी और आने का इतजार 
वो आएंगी तो भी जरुरी नही वैसी ही हो
जो छूट गया थी कागज पर
जाने वो अब तक घूम कर आएगी
कुछ साथ लाएगी तो कुछ
बदली सी छोड़ भी आएगी कही कुछ।   

चार पत्ते

तिलमिलाती घमंड दिखती धुप थी।
दूर दूर तक न छाव थी न राह थी। 
सूखा मुख और माथे पर सिलवट लिए,
थोड़ी ही सही पर छाँव की तलाश थी। 
अब तो डगमगा रहे थे कदम
अब न चल का साहस था न आगे बढ़ने की ढढास थी।  
पतझड़ का मौसम था कुछ सूखे पत्तो कड कड आवाज थी
तो कुछ सनसनाती लू की चाल  थी। 
हवाएँ मुझ से थोड़ा नाराज नाराज थी
अपना रूखापन दिखा कर उन्हें मुझ से कुछ कहने की चाह थी। 
पर मुझमे ना अब कुछ कहने सुनने की हालत थी ना हिम्मत थी। 
सिर्फ चल ही अवरुद्ध नही हुई थी। 
गला चिपकने को और आखे मुंदने को तैयार थी। 
धुंदलापन बढ़ रहा था, की अचानक रुक गया 
ये किसी की मेहरबानी थी? या किसी ने मेरे लिए दुआ  थी 
सुखा पेड़ है और कुछ सूखे चार पत्ते??
बस क्या इन्ही से मिल रही वो राहत थी। 
पूरा बदन तो नही पर चेहरे को सुकून देने की कोशिश थी 
चार सूखे पत्तो की मिल कर मुझे राहत देने की आस थी।  
इन्हे खुश हो कर दू भी तो क्या ??
इनकी ज़िन्दगी तो पहले ही कुछ पलो में सिमटी थी।  
शाम शुरू होने को आई थी। 
सूरज ने ली अब अंगड़ाई थी। 
मेरे माथे पर सुकून और होठो पर मुस्कान थी। 
में अब जोश के साथ आगे निकल पड़ी थी। 
और उन पत्तो को झड़ कर ठंडी  होने लगी मिट्टी प्राप्त थी।  

समय से पहले ढूंढ मुझे तू

मेरी ज़िन्दगी की ही तरह
बिखरे पन्नो से बिखर गए हो तुम। 
समेट कर तुम्हे किताब बनाऊ
दिल में सहेजू सीने से लगाऊं। 
अभी तो बहुत लम्बा है ज़िन्दगी का करवाह,
कुछ दुरी में चल कर बताऊ तो कुछ तुम्हे पढ़ कर बताऊ।  
वैसे तो साथ चलने का हुआ था फैसला
तूने माँगा था साथ मेरा, 
तुझे याद है की नहीं,
चल तुझे कुछ कहकर सुनाऊ,
तो कुछ सुनाकर दिखाऊ।  
यूँ अकेला कर मुझे तू छुप गया है राह में,
किसे कहकर ये खबर तुझ तक पोहचाउ 
या आखिरी सांस तेरा नाम ले छोड़ चली जाऊ। 

एक कमरा

एक कमरा
एक कमरा मिला अनजाना सा
पराये देश मै....
पहली बार लगी थी हवा अनछुई अठखेली लिए
दो दिन हो गए इस शहर में
घुमा दर बदर यहाँ
हर शाम लोटना पड़ता है, उसी अनजाने से कमरे में
पुरे शहर में धक्के खाकर अब साँस भी वही आती है
वही जिसे सोचा था, सबसे बेगाना अपना भी अब यही लगता है
हां वही एक कमरा।

मुंबई

जहाँ पिंजरे में रहते है, उड़ने की खातिर। 

तेज़ी से मिट रहा है सब कुछ


दिमाग बड़े कमाल का होता है
हम सोते है पर ये जागा होता है।

कभी हमे इशारो पे नचाता है
कभी सर्वश्रेष्ठ होने का घमंड दिखाता है।

कभी हृदय से लड़ पड़ता है
तो कभी जीत कर भी संतुष्टि नहीं।

पर मेरा कुछ अनोखा है
या मुझसे ये कुछ रूठा है।

लगे मुझे ऐसा की ये सजा दे रहा है
में रोज़ नयी कहानी लिखती जा रही हूँ
और ये तेज़ी से मिटाता जा रहा है।

अब मुझको तो डर लग रहा है
सब कुछ मिट जायेगा ऐसा जान पड़ रहा है।

सारी बातें, सारी यादें तूने ही सहेजी हैं
मिटाता जा मिटानी जो तुझे है।

पहचान ना मेरी मिटने पाये
वरना सर्वश्रेष्ठ तू नहीं दिल होगा।

जो सब कुछ जान कर भी
धड़कता ही रहेगा क्युंकि
शायद, अब वो तुझे पहचाने लगा है।

ये आंसू आँख से रुक न पाये

ये आंसू आँख से रुक न पाये
आँखे मूंदे आहे भरते
सोच इसी विचार में
कहा चले गए हो तुम
समझ ना पाउ प्यार में
बहुत संभाला इनको मैंने
कोशिश की है पूरी मैंने
न माने और ज़िद्द की पूरी
गिरा दिया इन्हे आँख से मैंने
शुरू हुए ये एक बार जो
रुकने का ये नाम न लेवे
कभी दायें से कभी बांयें से
बार बार तेरा नाम ही केहवे
आँखों को सुखा कर के ये
गीले अश्क जो बहते जाए
रुक कर जब ये वापस आये
सूखे को फिर गिला कर जाए। 

Thursday 24 September 2015

न्यूज


मेने न्यूज चेनल लगाने छोड़ दिये है ,
जब भी लगाती हूँ TV से खून टपकता हैं ।

हाँ


हाँ  मिला था वो मुझे ,
काघां ढूंढ रहा था।

तन्हाई

कड कड करते पत्ते जब टूट कर
बिखर गये ज़मीन पर
तब आये उस सन्नाटे में एक आखिरी बचे
पत्ते ने कहा घीरे से
यारों तन्हाई नहीं सही जाती कुछ तो बोलों ।

Wednesday 23 September 2015

कहाँ?

कहाँ रहता वक्त हे
कोई जाने तो बताये
अभी का वक्त तो सबको मिले हे
जो आयेगा वो कहा इंतजार करे हे
और जो बित गया वो कहाँ समेट रखे हे
कहाँ रहता वक्त हे।

उलझन

तेरी आँखों में रंग गुलाबी उलझे
घुएँ में रोशनी सुरज की
किताबों में अटकी सयाही
तेरी बाहों में खनकती चुङीयो की।

जिद

चलो अब जिद छोडो
ये चाँद तुम रख लो
ये रात मुझे देदो।