Thursday 29 October 2015

राज़

एक दिन एक कलम मिली 
और ले आई तरीका मुश्किलो से भागने का 
बिन घर छोड़े। 

लावारिस

जितना पानी बारिश में मेरे घर पर पड़ा वो मेरा हुआ। 
जितना तुम्हारे घर पड़ा वो तुम्हारा। 
पर बेचारा सड़क पर पड़ा पानी लावारिस है 
कोई भी बच्चा आता है 
और मनमानी कर अपनी कश्ती चलाता है। 

एक शहर, जो गुम गया

एक शहर था। 
था भी के पता नहीं। 
अब तो आसमान से मरी हुई तितलिया गिरती हुई देखती हूँ में। 
 बादलों का रंग सुख कर लाल हो चला है। 
पेड़ सारे ज़मीन पर पसरे पड़े है। 
कौन उठाये अब ?
छोड़ो
कुछ एक ने तो कोशिश भी की 
रंगो की बाल्टियाँ भर कर उस शहर को दे दी। 
पर कितना रंग पाते अपने आसमान को
तीरगी से भरे हुए कुओं जैसे घर थे सारे 
पिछली बार फूल खिलते हुए देखा था मैंने 
अब सिर्फ जुगनू है बिन रौशनी के उड़ रहे है हर तरफ। 

Tuesday 27 October 2015

बह गया घरोंदा

मुझे घर बनाने की बहुत जल्दी थी
और राजस्थान में सिर्फ मिटटी थी
उससे बाहर देख आना था गयी तो
वहाँ भी देखा सब माटी के घर बना रहे थे
में भी बनाने में जुट गयी
पीछे देखा ही नहीं कब तुम्हारे इरादे
लेहरो में तबदील हो गए। 

Sunday 25 October 2015

हाँ तुम

हर रात अकेले तो नहीं आती ?
तुम अकेले तो नहीं सोते ?
नहीं अकेले नहीं
कुछ तुम्हारी खामोशिया तो कुछ आहे ताकती है तुम्हे
 तुम्हारे सिरहाने पर पड़ी हुई। 

Saturday 24 October 2015

एक खत मेरे बाद मेरी बिटिया को

डरना मत तुम
रातो के जाले हटाना
कुछ शैतानी तारे नोचने को आएंगे
पर रौशनी की तपिश सफ़ेद ही देखना लाल नहीं
डरना मत तुम
चाँद तुम्हारा नहीं
ये रात तुम्हारी नहीं
घबराना मत तुम सुबह तुम्हारी होगी
तो क्या हुआ जो आ जाती है रात हर रोज़
इसी आसमान पर रात है इसी पर सवेरा
तीन पहर तक संभाल लेना अकेले
फिर उसके बाद कभी कभी मैंने चिड़ियों को चहचहाते सुना है
और धीरे धीरे सूरज की रौशनी डूबा देगी
आसमान को नारंगी रंग से
मेरी बहादुर बिटिया
डरना मत तुम। 

Tuesday 20 October 2015

रात, दिन और रंगना

रंग बदलती है हर चीज़।
दो रंग 
एक उसका और एक रात का काला 
रात आती है, काले रंग की भरी बाल्टी लिए
सब पर उड़ेल जाने को 
फिर दिन आता है
रौशनी की बारिश से काली ख़ाक हटाने को अपने रंग में ले आने को
हर रोज़ सुबह भरता है सूरज
पेड़ो में हरा
पानी में नीला
आसमान नारंगी सा रंग बदलता
और हर एक की रगों में लाल।
कैसा हो की सूरज ऊब जाये इन रंगो से
एक सुबह हो और
पेड़ नीले
आसमान हरा
पानी गुलाबी
और हर एक की रगो में दौड़े सच्चाई का सफ़ेद पानी। 

Thursday 15 October 2015

पुराना ज़माना

वो कहानी याद है तुम्हे ?
हाँ वही
वो तुमने पूरी नहीं सुनाई
ऐसा भी कोई ज़माना होगा जब
सब्जिया भी मिलावटी मिलेंगी?
पहले से ही कह देती हूँ ,
कोई चीज़ फ्री में मत देना किसी को
वरना लोग उसे बेज़्ज़ती समझेंगे उनकी।
और तुम लूट भी जाओगे तो शर्मिन्दिगी के साथ
समय तो आता रहेगा जाता रहेगा।
जमाना भी बदलेगा।
जो कमीज़ सी थी तुम्हारे लिए
तुम कह रहे थे वो तंग हो गयी है आज कल?
सही कहा जमाना जल्दी गुज़र रहा है।
गाँव में कच्ची सड़क के इस पार घर है,
और उस पार सबके खेत।
मिर्चियाँ और कोल्हा (कद्दू ) ही उगता आया है खेत में।
चाहे गाँव में ब्याह शादी हो, या मरन-करन कोल्हा ही बनता है।
बाकी दिन तो छाछ और मिर्च रोटी से निकल जाते है।
पर, याद रहे वहां ऐसा ना होगा।
अरे बाबा, सच मानो खाना खाने का तो समय ही नहीं होगा लोगो के पास
और भूक से मिट जाने वाली चीज़ो को लोग बिमारी समझ
साइकियाट्रिक के पास जाया करेंगे और लाखो उड़ाया करेंगे।
उन्हें नहीं पता होगा की हरी सब्जिया और फल, मंडी से ले आने पर ज्यादा असर होगा।
पर तुम बताना मत उन्हें ये बात, यकीन मानो नहीं मानेंगे वो।
और माँ तुम भी सुनो ,
जब खीर बनाओगी तो सर पर हाथ फिराते हुए ये मत कह देना
की खा लो ना तुम्हारे लिए पुरे दस बादाम डाले है उस वक़्त लोग तुम्हे चीप भी समझ सकते है
उन्हें नहीं पता होगा ये बादाम की गिनतियों वाला प्यार।
बताया था ना लूट भी जाओगे और वो भी शर्मिन्दिगी के साथ। 

Monday 5 October 2015

ना शीशा ना पत्थर

शीशा मत बन जाना तुम 
बात कोई करेगा तुम से और टकरा कर 
किसी और तक पोहच जाएँगी 
पर, पत्थर भी ना बन जाना 
देखकर लोग नहीं चलेंगे 
और गालिया भी तुम्हे पड़ेंगी। 

चुप्पी

छोटा था, नादान था वो
लिया चाँद को कटोरा समझ के आसमान से छीन
उसमे भरा पानी
और ले गया तारो को नहलाने
चाँदनी ठंडी पड़ी थी
और जल रही थी रात
मन किया की उसे बतादु ये वास्तविकता नहीं है
तीरगी का समय है तेरा। 

फर्क क्या?

सीमा के उस पार
लोग है हमारे जैसे
शक्ल है हमारे जैसी
खून है हमारे जैसा
तो फर्क क्या है?
जब उनके सर कटते है तो टोपिया गिरती है
जब हमारे कटते है तो पगड़िया ????

Saturday 3 October 2015

हम

यूँ नादानी में खुरेच कर
हथेली अपनी, लकीर ना निकालो
जो तेरा मेरा साथ लिखा हो
फ़ासले ना बढ़ जाये। 

तुमसे बहुत समय बाद मिलना

बहुत बीमार थी कलम मेरी
शायद तुमसे मिलना न हो पाया था इतने दिनों से
तुम मिले तो अच्छा लगा ,
चलो अब देर न करो
जल्दी से अपनी जेब में हाथ डालो
और मुट्ठी भर शब्द निकालो। 

देखा नहीं तुमने?

छलकते सावन को,
जाले पड़ती रातो को,
सूरज के आँचल को,
रेत के मातम को। 

पिंजरा

पिंजरे में फाँस ली गयी 
आस ली गयी 
के तुम आओगे और मुझे छुड़ा ले जाओगे 
आओगे न ??
दूर कहीं ले जाना मुझको 
जहाँ ना पिंजरे होंगे ,
ना ललचाती झूटी रोटियाँ 
बस तुम होंगे। 
बस में होंगी। 
और हम हमसे छोटे पिंजरे बनाया करेंगे।