Sunday 11 September 2016

पहचान



शिकारी आया था किनारे से होकर चुपचाप और पक्षी छुप गए थे  हर तरफ से ,न जाने कैसे पहचाने जाते है शिकारी उनको ना हाथ में तीर कमान थी न थी सर पर पत्तो वाली टोपी न ही रंग काला था ना ही मुस्कान डरावनी।
मासूम शिकारी था, लाचार सी हालत थी, चेहरे पर पड़ी झुर्रियां अपने बच्चों को न पाल पाना बता रही थी।
पंछी सारे छुप कर इंतज़ार कर रहे थे उसके बच्चों का आज भी भूका सो जाने का।
पर आज कैसे खाली हाथ लौट जाता?  आज तो मंझले बच्चे ने अपना पहला शब्द बोला था बीवी घर पर राह ताक रही थी आँखों मे उम्मीद लिए।
और और फिर एक पक्षी पकड़ा गया..........प्रकृति का नियम फिर सही हो चला फ़ूड चैन की खराबी ठीक हुई एक का दूसरे को खाना और उसका तीसरे को फिर चल पड़ा , चलो कोई नहीं वो ही सही उसे पता तो चला की शिकारी भूका है दो दिन से और सिर्फ सत्तू खाया था पिछली रात बचा हुआ कुछ।
और फिर अब राह ताक रहे है उस कबूतर के नन्हे बच्चे घोसले में उसके , जिसे वो शिकारी ले जा रहा है अपनी पीठ पर टांग कर चेहरे पर संतोष लिए...... ।

Wednesday 23 December 2015

बहुत छोटी हूँ में

बहुत छोटी हूँ में
में बात अपनी उम्र की नहीं कर रही हूँ
ना ही कर रही हूँ इस कलम की
में बात कर रही हूँ इस लिखाई की
में बात नहीं कर रही  लिखावट की
ना ही बात कर रही हूँ अपने कद की
में तो बात कर रही हूँ इस कविता की
जिसे बुनते ही चली जा रही हूँ में
में बात नहीं कर रही हूँ कला की
वो तो सबसे सर्वश्रेष्ठ है।
न ही बात कर रही हूँ कलाकार की
में बात नहीं कर रही हूँ एक कलाकार को दूसरे कलाकार से श्रेष्ठ कहने की
में बात कर रही हूँ शब्द कलाकार की
जिससे मुझे पुकारा जाए
बहुत छोटी हूँ में
हाँ यही तो बात कर रही हूँ में।

Sunday 1 November 2015

सवाल

क्यों? क्यों? इंतज़ार ही बनाया कलाकार ने
ये तो सबको करना ही पड़ता है।
किसी के लिए अच्छा तो किसी के लिए बुरा
साबित हुआ है इंतज़ार इसीलिए??
पर कला ही तो ऐसी जगह है जहा पर हर मनमानी मंजूर है
तो क्यों न बनाई बेरूखी?
जो बेरुखी ही रहेगी सबके लिए या क्यों न बनाया
प्रेमिका या माँ जैसा अनंत प्रेम?

Thursday 29 October 2015

राज़

एक दिन एक कलम मिली 
और ले आई तरीका मुश्किलो से भागने का 
बिन घर छोड़े। 

लावारिस

जितना पानी बारिश में मेरे घर पर पड़ा वो मेरा हुआ। 
जितना तुम्हारे घर पड़ा वो तुम्हारा। 
पर बेचारा सड़क पर पड़ा पानी लावारिस है 
कोई भी बच्चा आता है 
और मनमानी कर अपनी कश्ती चलाता है। 

एक शहर, जो गुम गया

एक शहर था। 
था भी के पता नहीं। 
अब तो आसमान से मरी हुई तितलिया गिरती हुई देखती हूँ में। 
 बादलों का रंग सुख कर लाल हो चला है। 
पेड़ सारे ज़मीन पर पसरे पड़े है। 
कौन उठाये अब ?
छोड़ो
कुछ एक ने तो कोशिश भी की 
रंगो की बाल्टियाँ भर कर उस शहर को दे दी। 
पर कितना रंग पाते अपने आसमान को
तीरगी से भरे हुए कुओं जैसे घर थे सारे 
पिछली बार फूल खिलते हुए देखा था मैंने 
अब सिर्फ जुगनू है बिन रौशनी के उड़ रहे है हर तरफ। 

Tuesday 27 October 2015

बह गया घरोंदा

मुझे घर बनाने की बहुत जल्दी थी
और राजस्थान में सिर्फ मिटटी थी
उससे बाहर देख आना था गयी तो
वहाँ भी देखा सब माटी के घर बना रहे थे
में भी बनाने में जुट गयी
पीछे देखा ही नहीं कब तुम्हारे इरादे
लेहरो में तबदील हो गए।