Thursday, 29 October 2015

एक शहर, जो गुम गया

एक शहर था। 
था भी के पता नहीं। 
अब तो आसमान से मरी हुई तितलिया गिरती हुई देखती हूँ में। 
 बादलों का रंग सुख कर लाल हो चला है। 
पेड़ सारे ज़मीन पर पसरे पड़े है। 
कौन उठाये अब ?
छोड़ो
कुछ एक ने तो कोशिश भी की 
रंगो की बाल्टियाँ भर कर उस शहर को दे दी। 
पर कितना रंग पाते अपने आसमान को
तीरगी से भरे हुए कुओं जैसे घर थे सारे 
पिछली बार फूल खिलते हुए देखा था मैंने 
अब सिर्फ जुगनू है बिन रौशनी के उड़ रहे है हर तरफ। 

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