Monday 28 September 2015

चुपके से

अपनी रगो में महसूस किया है कभी
लहू का गुज़रते रहना
चुपके से।
रोज़ के शोर शराबे में कभी कानो तक पोह्ची है
दिल की धड़कने
चुपके से।
कभी नज़र डाली है करोड़ो की तादात में
तारो का आसमान से रोज़ गुज़र जाना
चुपके से।
जैसे गुज़र जाते हो यादों के कारवाह
चुपके से।
हर कुछ महीनो में मौसम का बदलना होता आया है
चुपके से।
चिड़ियों का सोना और जाने कब उठ कर चहचहाना
चुपके से।
नदी किनारे झुकी हुई झड़िया जिन्हे
छूता हुआ  गुज़र रहा है पानी हर रोज़
चुपके से।
गंगा और गंगा जैसी हज़ारो नदिया पवित्रता के साथ
बह रही है हर देस से गुज़र के बिना सीमाओ का लेहाज़ा करते हुए
खल खल में छुपी ख़ामोशी क साथ
चुपके से।

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