Monday 28 September 2015

तहखाना

बहत समय बाद जब आज कलम उठाई तो ऐसा लगा की जैसे पुराने तहखाने के दरवाज़े से आने वाली चुर्र की आवाज़ आएगी। आवाज़ तो नहीं आई पर हाँ पुराने पड़े सामान की तरहां थोड़ी उथल पुथल मचानी पड़ी दिमाग में उन शब्दों को ढूंढने में जिन्हे कई समय से काम में नहीं लिया था।
आज फिर पुराने समय की तरह एक नयी माला गूथने की चाह है।
नए रंग रंगीले फूलो जैसे शब्दों को गूथ कर नयी माला बनेगी और फिर समेट कर रख दी जाएगी उसी तहखाने में हमेशा की तरह। 
फिर एक लम्बा समय होगा और फिर कलम उठेगी पुराने दरवाज़े की तरह आती चुर्र की आवाज़ के इंतज़ार में जो नहीं आएगी क्यूंकि कलम पुरानी हो सकती है पर मेरी स्याही गीली रहेगी वो सूखेगी नहीं कभी नहीं। 
उसका काम ही है शब्दों को रोज़ अपने नीले, लाल और हरे, काले रंग से चमक देना और उन्हें नया रखना। 
तो माला का क्या? हाँ माला अरे वो भी नयी मुरझायेगी चिंता न कीजिये उसे मालूम है उसे नहीं मुरझना 
नहीं तब तक तो नहीं जब तक उसे कोई आकर ले नहीं जाता उसकी सही जगह उसी तहखाने से। 
उसी इंतज़ार में सिमटी माला तहखाने मे। 

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