Friday 25 September 2015

चार पत्ते

तिलमिलाती घमंड दिखती धुप थी।
दूर दूर तक न छाव थी न राह थी। 
सूखा मुख और माथे पर सिलवट लिए,
थोड़ी ही सही पर छाँव की तलाश थी। 
अब तो डगमगा रहे थे कदम
अब न चल का साहस था न आगे बढ़ने की ढढास थी।  
पतझड़ का मौसम था कुछ सूखे पत्तो कड कड आवाज थी
तो कुछ सनसनाती लू की चाल  थी। 
हवाएँ मुझ से थोड़ा नाराज नाराज थी
अपना रूखापन दिखा कर उन्हें मुझ से कुछ कहने की चाह थी। 
पर मुझमे ना अब कुछ कहने सुनने की हालत थी ना हिम्मत थी। 
सिर्फ चल ही अवरुद्ध नही हुई थी। 
गला चिपकने को और आखे मुंदने को तैयार थी। 
धुंदलापन बढ़ रहा था, की अचानक रुक गया 
ये किसी की मेहरबानी थी? या किसी ने मेरे लिए दुआ  थी 
सुखा पेड़ है और कुछ सूखे चार पत्ते??
बस क्या इन्ही से मिल रही वो राहत थी। 
पूरा बदन तो नही पर चेहरे को सुकून देने की कोशिश थी 
चार सूखे पत्तो की मिल कर मुझे राहत देने की आस थी।  
इन्हे खुश हो कर दू भी तो क्या ??
इनकी ज़िन्दगी तो पहले ही कुछ पलो में सिमटी थी।  
शाम शुरू होने को आई थी। 
सूरज ने ली अब अंगड़ाई थी। 
मेरे माथे पर सुकून और होठो पर मुस्कान थी। 
में अब जोश के साथ आगे निकल पड़ी थी। 
और उन पत्तो को झड़ कर ठंडी  होने लगी मिट्टी प्राप्त थी।  

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